Genesis - -उत्पत्ति
01. और अकाल देश में और भी भयंकर होता गया।
02. जब वह अन्न जो वे मिस्र से ले आए थे समाप्त हो गया तब उनके पिता ने उन से कहा, फिर जा कर हमारे लिये थोड़ी सी भोजनवस्तु मोल ले आओ।
03. तब यहूदा ने उससे कहा, उस पुरूष ने हम को चितावनी देकर कहा, कि यदि तुम्हारा भाई तुम्हारे संग न आए, तो तुम मेरे सम्मुख न आने पाओगे।
04. इसलिये यदि तू हमारे भाई को हमारे संग भेजे, तब तो हम जा कर तेरे लिये भोजनवस्तु मोल ले आएंगे;
05. परन्तु यदि तू उसको न भेजे, तो हम न जाएंगे: क्योंकि उस पुरूष ने हम से कहा, कि यदि तुम्हारा भाई तुम्हारे संग न हो, तो तुम मेरे सम्मुख न आने पाओगे।
06. तब इस्राएल ने कहा, तुम ने उस पुरूष को यह बताकर कि हमारा एक और भाई है, क्यों मुझ से बुरा बर्ताव किया?
07. उन्होंने कहा, जब उस पुरूष ने हमारी और हमारे कुटुम्बियों की दशा को इस रीति पूछा, कि क्या तुम्हारा पिता अब तक जीवित है? क्या तुम्हारे कोई और भाई भी है? तब हम ने इन प्रश्नों के अनुसार उससे वर्णन किया; फिर हम क्या जानते थे कि वह कहेगा, कि अपने भाई को यहां ले आओ।
08. फिर यहूदा ने अपने पिता इस्राएल से कहा, उस लड़के को मेरे संग भेज दे, कि हम चले जाएं; इस से हम, और तू, और हमारे बालबच्चे मरने न पाएंगे, वरन जीवित रहेंगे।
09. मैं उसका जामिन होता हूं; मेरे ही हाथ से तू उसको फेर लेना: यदि मैं उसको तेरे पास पहुंचाकर साम्हने न खड़ाकर दूं, तब तो मैं सदा के लिये तेरा अपराधी ठहरूंगा।
10. यदि हम लोग विलम्ब न करते, तो अब तब दूसरी बार लौट आते।
11. तब उनके पिता इस्राएल ने उन से कहा, यदि सचमुच ऐसी ही बात है, तो यह करो; इस देश की उत्तम उत्तम वस्तुओं में से कुछ कुछ अपने बोरों में उस पुरूष के लिये भेंट ले जाओ: जैसे थोड़ा सा बलसान, और थोड़ा सा मधु, और कुछ सुगन्ध द्रव्य, और गन्धरस, पिस्ते, और बादाम।
12. फिर अपने अपने साथ दूना रूपया ले जाओ; और जो रूपया तुम्हारे बोरों के मुंह पर रखकर फेर दिया गया था, उसको भी लेते जाओ; कदाचित यह भूल से हुआ हो।
13. और अपने भाई को भी संग ले कर उस पुरूष के पास फिर जाओ,
14. और सर्वशक्तिमान ईश्वर उस पुरूष को तुम पर दयालु करेगा, जिस से कि वह तुम्हारे दूसरे भाई को और बिन्यामीन को भी आने दे: और यदि मैं निर्वंश हुआ तो होने दो।
15. तब उन मनुष्यों ने वह भेंट, और दूना रूपया, और बिन्यामीन को भी संग लिया, और चल दिए और मिस्र में पहुंचकर यूसुफ के साम्हने खड़े हुए।
16. उनके साथ बिन्यामीन को देखकर यूसुफ ने अपने घर के अधिकारी से कहा, उन मनुष्यों को घर में पहुंचा दो, और पशु मारके भोजन तैयार करो; क्योंकि वे लोग दोपहर को मेरे संग भोजन करेंगे।
17. तब वह अधिकारी पुरूष यूसुफ के कहने के अनुसार उन पुरूषों को यूसुफ के घर में ले गया।
18. जब वे यूसुफ के घर को पहुंचाए गए तब वे आपस में डर कर कहने लगे, कि जो रूपया पहिली बार हमारे बोरों में फेर दिया गया था, उसी के कारण हम भीतर पहुंचाए गए हैं; जिस से कि वह पुरूष हम पर टूट पड़े, और हमें वश में करके अपने दास बनाए, और हमारे गदहों को भी छीन ले।
19. तब वे यूसुफ के घर के अधिकारी के निकट जा कर घर के द्वार पर इस प्रकार कहने लगे,
20. कि हे हमारे प्रभु, जब हम पहिली बार अन्न मोल लेने को आए थे,
21. तब हम ने सराय में पहुंचकर अपने बोरों को खोला, तो क्या देखा, कि एक एक जन का पूरा पूरा रूपया उसके बोरे के मुंह में रखा है; इसलिये हम उसको अपने साथ फिर लेते आए हैं।
22. और दूसरा रूपया भी भोजनवस्तु मोल लेने के लिये लाए हैं; हम नहीं जानते कि हमारा रूपया हमारे बोरों में किस ने रख दिया था।
23. उसने कहा, तुम्हारा कुशल हो, मत डरो: तुम्हारा परमेश्वर, जो तुम्हारे पिता का भी परमेश्वर है, उसी ने तुम को तुम्हारे बोरों में धन दिया होगा, तुम्हारा रूपया तो मुझ को मिल गया था: फिर उसने शिमोन को निकाल कर उनके संग कर दिया।
24. तब उस जन ने उन मनुष्यों को यूसुफ के घर में ले जा कर जल दिया, तब उन्होंने अपने पांवों को धोया; फिर उसने उनके गदहों के लिये चारा दिया।
25. तब यह सुनकर, कि आज हम को यहीं भोजन करना होगा, उन्होंने यूसुफ के आने के समय तक, अर्थात दोपहर तक, उस भेंट को इकट्ठा कर रखा।
26. जब यूसुफ घर आया तब वे उस भेंट को, जो उनके हाथ में थी, उसके सम्मुख घर में ले गए, और भूमि पर गिरकर उसको दण्डवत किया।
27. उसने उनका कुशल पूछा, और कहा, क्या तुम्हारा बूढ़ा पिता, जिसकी तुम ने चर्चा की थी, कुशल से है? क्या वह अब तक जीवित है?
28. उन्होंने कहा, हां तेरा दास हमारा पिता कुशल से है और अब तक जीवित है; तब उन्होंने सिर झुका कर फिर दण्डवत किया।
29. तब उसने आंखे उठा कर और अपने सगे भाई बिन्यामीन को देखकर पूछा, क्या तुम्हारा वह छोटा भाई, जिसकी चर्चा तुम ने मुझ से की थी, यही है? फिर उसने कहा, हे मेरे पुत्र, परमेश्वर तुझ पर अनुग्रह करे।
30. तब अपने भाई के स्नेह से मन भर आने के कारण और यह सोचकर, कि मैं कहां जा कर रोऊं, यूसुफ फुर्ती से अपनी कोठरी में गया, और वहां रो पड़ा।
31. फिर अपना मुंह धोकर निकल आया, और अपने को शांत कर कहा, भोजन परोसो।
32. तब उन्होंने उसके लिये तो अलग, और भाइयों के लिये भी अलग, और जो मिस्री उसके संग खाते थे, उनके लिये भी अलग, भोजन परोसा; इसलिये कि मिस्री इब्रियों के साथ भोजन नहीं कर सकते, वरन मिस्री ऐसा करना घृणा समझते थे।
33. सो यूसुफ के भाई उसके साम्हने, बड़े बड़े पहिले, और छोटे छोटे पीछे, अपनी अपनी अवस्था के अनुसार, क्रम से बैठाए गए: यह देख वे विस्मित हो कर एक दूसरे की ओर देखने लगे।
34. तब यूसुफ अपने साम्हने से भोजन-वस्तुएं उठा उठाके उनके पास भेजने लगा, और बिन्यामीन को अपने भाइयों से पचगुणी अधिक भोजनवस्तु मिली। और उन्होंने उसके संग मनमाना खाया पिया।